लाहौर (पाकिस्तान) के मकबूल अफसानानिगार इंतिजार हुसैन पिछले दिनों अपने राजस्थान दौरे में जयपुर आये हुए थे। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पश्चिमी देशों के अफसानों, अफसाने के फार्म और अपनी पुरानी यादों को लेकर उनसे मेरी गुफ्तगू हुई। पेश हैं उसके संपादित अंश।
एक अच्छा और कामयाब अफसानानिगार बनने के लिए क्या कोशिशें होनी चाहिए? -
मशहूर अफसानानिगारों के अफसाने पढ़ने चाहिए। ये अफसाने चाहे हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी या और किसी जबान के लेखकों के क्यों न हों। हमने जब अफसाने लिखने शुरू किये थे तो उससे पहले मोपांसा और चेखव को पढ़ा, प्रेमचन्द को पढ़ा और उन्हीं से हमें अफसाने लिखने की प्रेरणा मिली। शहादत हसन मन्टो पहले खुद कोई अफसानानिगार नहीं थे। उन्होंने शुरू में जाने-माने अफसानानिगारों के अफसानों के तरजुमे (अनुवाद) ही किये थे और धीरे-धीरे वे खुद मौलिक अफसाने लिखने लगे। अफसाने पढ़ने से ही अफसानों के अच्छे-बुरे की समझ पैदा होगी। आपका लिखा मकबूल होगा या नहीं, इसकी बजाय अफसाना लिखें और खुद ही सोचें कि हम औरों के मुकाबले क्या लिख रहे हैं। कुछ खास लिखेंगे तो अफसाना जरूर मकबूल भी होगा।
पाकिस्तान में हिन्दुस्तानी अफसानों और अफसानानिगारों को लेकर क्या नजरिया है।
- पाकिस्तान में हिन्दुस्तानी अफसानानिगारों की बहुत इज्जत है। जब अफसानों की बात होती है तो मुंशी प्रेमचन्द को कोई कैसे बिना याद किये रह सकता है। उन्होंने सबसे पहले उर्दू में ही अफसाने लिखना शुरू किया था। हिन्दी में अफसाने लिखना उन्होंने बाद में शुरू किया। पाकिस्तान में जब उर्दू अदब के अफसानों की बात चलती है तो मुंशी प्रेमचन्द का नाम आये बिना रह ही नहीं सकता। मुंशी प्रेमचन्द को हमारे यहां कोर्स में शामिल किया हुआ है।
क्या मुंशी प्रेमचन्द के अलावा किसी और हिन्दुस्तानी को भी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है।
- इतना मैं ठीक से तो नहीं कह सकता लेकिन यह बहुत यकीनी तौर पर कह सकता हूं कि हमारे यहां मुंशी प्रेमचन्द की तरह ही कृष्ण चन्दर, सरदार राजेन्द्र सिंह बेदी और इस्मत चुगताई के अफसानों को बहुत इज्जत के साथ पढ़ा जाता है और ये नाम हमारे यहां कोई नये नहीं हैं।
आपने अब तक कितने उपन्यास और कहानी संग्रह लिखे हैं।
- मेरे चार नावेल और तकरीबन दस-बारह कहानी संग्रह आ चुके हैं। मुझे यह कहते हुए फख्र है कि हिन्दुस्तान में मेरे अफसानों का अंगे्रजी में खूब अनुवाद हुआ। इनमें लीव्ज, सर्किल, क्रॉनिकल आफ पीकॉक्स, बस्ती वगैरह बहुत पापुलर हुए। ‘बस्ती‘ का तो हिन्दी में भी अनुवाद हुआ। हिन्दी के पाठक मुझे इसी वजह से ज्यादा जानने लगे।
एक तरफ हिन्दुस्तान तो दूसरी तरफ आपके अफसानों पर पश्चिमी अफसानानिगारों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसकी क्या वजह हो सकती है।
- जी हां, आप दुरूस्त फरमा रहे हैं। दरअसल जब मुल्क का पार्टीशन हो गया तो एक तरह से अर्से तक लगा कि यहां से हमारा ताल्लुक कट गया है। ऐसी सूरत में पश्चिमी मुल्कों से राब्ता रखना हमारे लिए ज्यादा आसान था। वहां का लिटरेचर और उनके अफसानानिगारों से सम्पर्क आसान होने की वजह से हमारे अफसानानिगारों को वहां का लिटरेचर पढ़ने-देखने में कोई दिक्कत नहीं थी। इसी वजह से वहां की शैली को एडॉप्ट किया गया। इसके बावजूद मैं यह कहना मुनासिब समझता हूं कि हिन्दुस्तान से जेहनी तौर पर हमारे ताल्लुक बहुत गहरे बने रहे। यहां की मिट्टी में पले-बढ़े, यहां के संस्कारों में हमारी परवरिश हुई और यहां से जो बहुत कुछ सीखा उसे कैसे भुला सकते थे। हमारे लेखन में इसका असर देखा जा सकता है।
मैं कैसे भूल सकता हूं कि ‘कथा‘ वालों ने ‘स्टोरीज ऑफ इंतिजार हुसैन‘ के नाम से मेरा एक कहानी संग्रह छापा था। हिन्दुस्तान में मेरे अफसानों को लोग बहुत इज्जत से पढ़ते हैं। मैं उनका शुक्रगुजार हूं।
पाकिस्तान में उर्दू और अंगे्रजी दो ही भाषाओं को तरजीह दी जाती है। आपके अफसाने वहां उर्दू के साथ अंग्रेजी में भी छपे होंगे। उनका क्या रेस्पांस रहा।
- हां, अंग्रेजी में भी वहां अनुवाद हुए हैं लेकिन हिन्दुस्तान में जो अनुवाद छपा उसका रेस्पांस पाकिस्तान से भी ज्यादा अच्छा रहा।
आपके एक संग्रह में ‘पंचतंत्र की कहानियों‘ से प्रभावित एक कहानी ‘कलीला-दमना हिट लिस्ट पर‘ है। आप इससे कैसे प्रभावित हुए।
- देखिए, पंचतंत्र या पौराणिक कथाएं आज की नहीं हैं। इसकी रिवायत बहुत पुरानी है। मुल्क का बंटवारा होने से पहले से पंचतंत्र की कहानियों का फारसी, अरबी और उर्दू में अनुवाद मिलता है। उर्दू में तो इस क्लासिक के दो-तीन वर्जन मौजूद हैं। मैंने जब इसे पढ़ा तो लगा कि ये नीति कथाएं हर दौर में इंसान को एक ताकत बख्शती हैं। मेरी कहानी आज के दौर को लेकर लिखी गई है और इसके बावजूद इसमें मैंने जानवरों के जरिए नीति और सिद्धान्तों को मौजू बनाने की भरपूर कोशिश की है। जहां भी इन्हें सुनाता हंू या जो लोग पढ़ते हैं, उसकी बड़ी तारीफ होती है।
भारत में कथा साहित्य के विकास के लिए समय-समय पर आंदोलन चले। मशहूर कथाकार कमलेश्वर ने बाकायदा एक अभियान चलाया। कथा साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए क्या ऐसे अभियान पाकिस्तान में भी चलाये गये।
- नहीं, हमारे मुल्क में कथा-कहानी एक ढर्रे पर ही चली लेकिन उसमें वक्त के साथ बदलाव भी आया। हमारे कहानीकार अपने-अपने हिसाब और अपनी सोच, शैली और कथ्य को लेकर कहानियां लिखते आ रहे हैं। सबका अपना अलग-अलग नजरिया रहता है।
क्या वहां कहानियों और उपन्यासों को लेकर कोई अकादमिक बहस भी होती हैं।
- नहीं, हिन्दुस्तान में आकर मैं देखता हूं कि यहां पोइट्री या फिक्शहन को लेकर लोग बहुत संजीदगी से बहसें करते हैं। हमारे यहां ऐसा नहीं है।
साहित्य के विकास को लेकर आपके मुल्क में सियासत और अकादमियों का क्या नजरिया रहता है।
- हमारे यहां सिर्फ एक अकादमी है - सेन्ट्रल एकेडमी आफ लिटरेचर। आपके यहां जिस तरह हर सूबे में उर्दू, हिन्दी, ब्रज, पंजाबी, सिंधी, संस्कृत वगैरह या दीगर जबानों की अकादमियां काम कर रही हैं वैसा हमारे यहां कुछ नहीं है। हां, उर्दू, पंजाबी, पश्तो जैसी जबानों और उसके लिटरेचर को फरोग देने के लिए बोर्ड जरूर बने हुए हैं। लिटरेचर, आर्ट, कल्चर के डेवलपमेंट को लेकर सियासत की कोई दिलचस्पी नहीं है। सियासत किसी भी दौरे की हो, उनका अदब के लिए कोई अहम नजरिया नहीं रहता। यहां केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने जैसे पूरे मुल्क में लिटरेचर एक्सचेंज का जो दौर शुरू किया है वह एक अच्छा कदम है। हमारे यहां इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
आप अफसानों में ट्रेडिशनल फार्म के खिलाफ हैं लेकिन उनमें दास्तानगोई मिलती है। ऐसा क्यों।
एक अच्छा और कामयाब अफसानानिगार बनने के लिए क्या कोशिशें होनी चाहिए? -
मशहूर अफसानानिगारों के अफसाने पढ़ने चाहिए। ये अफसाने चाहे हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी या और किसी जबान के लेखकों के क्यों न हों। हमने जब अफसाने लिखने शुरू किये थे तो उससे पहले मोपांसा और चेखव को पढ़ा, प्रेमचन्द को पढ़ा और उन्हीं से हमें अफसाने लिखने की प्रेरणा मिली। शहादत हसन मन्टो पहले खुद कोई अफसानानिगार नहीं थे। उन्होंने शुरू में जाने-माने अफसानानिगारों के अफसानों के तरजुमे (अनुवाद) ही किये थे और धीरे-धीरे वे खुद मौलिक अफसाने लिखने लगे। अफसाने पढ़ने से ही अफसानों के अच्छे-बुरे की समझ पैदा होगी। आपका लिखा मकबूल होगा या नहीं, इसकी बजाय अफसाना लिखें और खुद ही सोचें कि हम औरों के मुकाबले क्या लिख रहे हैं। कुछ खास लिखेंगे तो अफसाना जरूर मकबूल भी होगा।
पाकिस्तान में हिन्दुस्तानी अफसानों और अफसानानिगारों को लेकर क्या नजरिया है।
- पाकिस्तान में हिन्दुस्तानी अफसानानिगारों की बहुत इज्जत है। जब अफसानों की बात होती है तो मुंशी प्रेमचन्द को कोई कैसे बिना याद किये रह सकता है। उन्होंने सबसे पहले उर्दू में ही अफसाने लिखना शुरू किया था। हिन्दी में अफसाने लिखना उन्होंने बाद में शुरू किया। पाकिस्तान में जब उर्दू अदब के अफसानों की बात चलती है तो मुंशी प्रेमचन्द का नाम आये बिना रह ही नहीं सकता। मुंशी प्रेमचन्द को हमारे यहां कोर्स में शामिल किया हुआ है।
क्या मुंशी प्रेमचन्द के अलावा किसी और हिन्दुस्तानी को भी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है।
- इतना मैं ठीक से तो नहीं कह सकता लेकिन यह बहुत यकीनी तौर पर कह सकता हूं कि हमारे यहां मुंशी प्रेमचन्द की तरह ही कृष्ण चन्दर, सरदार राजेन्द्र सिंह बेदी और इस्मत चुगताई के अफसानों को बहुत इज्जत के साथ पढ़ा जाता है और ये नाम हमारे यहां कोई नये नहीं हैं।
आपने अब तक कितने उपन्यास और कहानी संग्रह लिखे हैं।
- मेरे चार नावेल और तकरीबन दस-बारह कहानी संग्रह आ चुके हैं। मुझे यह कहते हुए फख्र है कि हिन्दुस्तान में मेरे अफसानों का अंगे्रजी में खूब अनुवाद हुआ। इनमें लीव्ज, सर्किल, क्रॉनिकल आफ पीकॉक्स, बस्ती वगैरह बहुत पापुलर हुए। ‘बस्ती‘ का तो हिन्दी में भी अनुवाद हुआ। हिन्दी के पाठक मुझे इसी वजह से ज्यादा जानने लगे।
एक तरफ हिन्दुस्तान तो दूसरी तरफ आपके अफसानों पर पश्चिमी अफसानानिगारों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसकी क्या वजह हो सकती है।
- जी हां, आप दुरूस्त फरमा रहे हैं। दरअसल जब मुल्क का पार्टीशन हो गया तो एक तरह से अर्से तक लगा कि यहां से हमारा ताल्लुक कट गया है। ऐसी सूरत में पश्चिमी मुल्कों से राब्ता रखना हमारे लिए ज्यादा आसान था। वहां का लिटरेचर और उनके अफसानानिगारों से सम्पर्क आसान होने की वजह से हमारे अफसानानिगारों को वहां का लिटरेचर पढ़ने-देखने में कोई दिक्कत नहीं थी। इसी वजह से वहां की शैली को एडॉप्ट किया गया। इसके बावजूद मैं यह कहना मुनासिब समझता हूं कि हिन्दुस्तान से जेहनी तौर पर हमारे ताल्लुक बहुत गहरे बने रहे। यहां की मिट्टी में पले-बढ़े, यहां के संस्कारों में हमारी परवरिश हुई और यहां से जो बहुत कुछ सीखा उसे कैसे भुला सकते थे। हमारे लेखन में इसका असर देखा जा सकता है।
मैं कैसे भूल सकता हूं कि ‘कथा‘ वालों ने ‘स्टोरीज ऑफ इंतिजार हुसैन‘ के नाम से मेरा एक कहानी संग्रह छापा था। हिन्दुस्तान में मेरे अफसानों को लोग बहुत इज्जत से पढ़ते हैं। मैं उनका शुक्रगुजार हूं।
पाकिस्तान में उर्दू और अंगे्रजी दो ही भाषाओं को तरजीह दी जाती है। आपके अफसाने वहां उर्दू के साथ अंग्रेजी में भी छपे होंगे। उनका क्या रेस्पांस रहा।
- हां, अंग्रेजी में भी वहां अनुवाद हुए हैं लेकिन हिन्दुस्तान में जो अनुवाद छपा उसका रेस्पांस पाकिस्तान से भी ज्यादा अच्छा रहा।
आपके एक संग्रह में ‘पंचतंत्र की कहानियों‘ से प्रभावित एक कहानी ‘कलीला-दमना हिट लिस्ट पर‘ है। आप इससे कैसे प्रभावित हुए।
- देखिए, पंचतंत्र या पौराणिक कथाएं आज की नहीं हैं। इसकी रिवायत बहुत पुरानी है। मुल्क का बंटवारा होने से पहले से पंचतंत्र की कहानियों का फारसी, अरबी और उर्दू में अनुवाद मिलता है। उर्दू में तो इस क्लासिक के दो-तीन वर्जन मौजूद हैं। मैंने जब इसे पढ़ा तो लगा कि ये नीति कथाएं हर दौर में इंसान को एक ताकत बख्शती हैं। मेरी कहानी आज के दौर को लेकर लिखी गई है और इसके बावजूद इसमें मैंने जानवरों के जरिए नीति और सिद्धान्तों को मौजू बनाने की भरपूर कोशिश की है। जहां भी इन्हें सुनाता हंू या जो लोग पढ़ते हैं, उसकी बड़ी तारीफ होती है।
भारत में कथा साहित्य के विकास के लिए समय-समय पर आंदोलन चले। मशहूर कथाकार कमलेश्वर ने बाकायदा एक अभियान चलाया। कथा साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए क्या ऐसे अभियान पाकिस्तान में भी चलाये गये।
- नहीं, हमारे मुल्क में कथा-कहानी एक ढर्रे पर ही चली लेकिन उसमें वक्त के साथ बदलाव भी आया। हमारे कहानीकार अपने-अपने हिसाब और अपनी सोच, शैली और कथ्य को लेकर कहानियां लिखते आ रहे हैं। सबका अपना अलग-अलग नजरिया रहता है।
क्या वहां कहानियों और उपन्यासों को लेकर कोई अकादमिक बहस भी होती हैं।
- नहीं, हिन्दुस्तान में आकर मैं देखता हूं कि यहां पोइट्री या फिक्शहन को लेकर लोग बहुत संजीदगी से बहसें करते हैं। हमारे यहां ऐसा नहीं है।
साहित्य के विकास को लेकर आपके मुल्क में सियासत और अकादमियों का क्या नजरिया रहता है।
- हमारे यहां सिर्फ एक अकादमी है - सेन्ट्रल एकेडमी आफ लिटरेचर। आपके यहां जिस तरह हर सूबे में उर्दू, हिन्दी, ब्रज, पंजाबी, सिंधी, संस्कृत वगैरह या दीगर जबानों की अकादमियां काम कर रही हैं वैसा हमारे यहां कुछ नहीं है। हां, उर्दू, पंजाबी, पश्तो जैसी जबानों और उसके लिटरेचर को फरोग देने के लिए बोर्ड जरूर बने हुए हैं। लिटरेचर, आर्ट, कल्चर के डेवलपमेंट को लेकर सियासत की कोई दिलचस्पी नहीं है। सियासत किसी भी दौरे की हो, उनका अदब के लिए कोई अहम नजरिया नहीं रहता। यहां केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने जैसे पूरे मुल्क में लिटरेचर एक्सचेंज का जो दौर शुरू किया है वह एक अच्छा कदम है। हमारे यहां इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
आप अफसानों में ट्रेडिशनल फार्म के खिलाफ हैं लेकिन उनमें दास्तानगोई मिलती है। ऐसा क्यों।
- मुझे लगता है कि मैं दस्तानगोई के जरिए अपने दिल की बात आसानी से पहुंचा पाता हूं। हमारी एक साझी परम्परा रही है। हिन्दुस्तान में ऐसे बहुत से धारावाहिक भी बने और मकबूल हुए। वैसे मैं कहानी के ट्रेडिशनल फार्म को पसन्द नहीं करता। मैं जब अफसाना लिखने बैठता हूं तो वर्तमान मेरे सामने होता है लेकिन जब मुकम्मल करता हूं तो उसमें अतीत की यादें भी चली आती हैं। मैं समझता हूं इससे कहानी में पुख्तगी आती है। वह ताकतवर बनती है और लोगों को उसमें रस आने लगता है।
आपकी बहुत सी कहानियों में हिन्दुस्तानी पात्र मुखरित होकर सामने आते हैं।
- मेरा अतीत हिन्दुस्तान की सरजमीं से वाबस्ता रहा है। हम आखिरी दौर में हापुड़ (उत्तरप्रदेश) में जाकर बस गये थे। मेरा बचपन उत्तर प्रदेश के डिबई (बुलन्दशहर) में बीता। बहुत सी यादें आज भी जेहन में तरोताजा हैं। मैं वहां दो-एक बार जाकर भी उन यादों को ताजा कर आया हूं। हर बार कुछ नयापन महसूस करता हूं। वह मिट्टी मुझे अपनी ओर खींचती है और भीतर ही भीतर मुझे सींचती है। दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मेरे दिलो-दिमाग में गहराई से जमे हुए हैं। आदमी का अतीत कई यादों के साथ दुश्वारियां भी लिए होता है। मैं उन्हें वहां रहकर भी भुला नहीं पाता। मेरी सियासत में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन उम्दा रिवायतों को आप मेरे अफसानों में देख सकते हैं। इनमें धर्म, जाति, क्षेत्र आदि का कोई बंधन नहीं है। अदब में ये चीजें आना स्वाभाविक है और यह इसकी ताकत और खूबी है।
‘बस्ती‘, ‘मोरनामा‘, ‘दिल्ली था जिसका नाम‘ और बहुत से मेरे अफसानों में मेरे जेहन के हिन्दुस्तान को आप देख सकते हैं। अफसानों में ऐसे स्थानों और चरित्रों का समावेश सायाश नहीं है बल्कि वे खुद-ब-खुद चले आते हैं। अफसाने कोई कोरी कल्पना पर टिके नहीं होते बल्कि उनमें सच्चाई के अक्स होते हैं।
इंसान के भीतर छुपे दर्द और संवेदनाओं को उकेरने का काम अदब एक पुल के तौर पर करता है। अदब नाउम्मीदी को दूर करने के साथ दिलों को जोड़ने का काम करता है और एक भरोसा कायम करता है। हम लिखते हैं तो नक्काद (आलोचक) हमारे जेहन में नहीं होते। यह सोचना हमारा काम भी नहीं है कि आलोचक या पाठक क्या सोचते हैं। हमारी हद अफसाना लिखने तक है।
इंतिजार हुसैन और उनकी कृतियां
जन्म 21 दिसम्बर 1925
डिबाई, जिला बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : मेरठ कालेज से उर्दू में एम.ए.
कृतियां : दिसम्बर 1948 में पहली कृति ‘अदब-ए-लतीफ।‘ ‘बस्ती‘, ‘चांद गहन‘, ‘तजकिरा‘, ‘आगे समन्दर है‘ एवं ‘दिल और दास्तान।‘ सभी उपन्यास)
‘गली कूंचे‘, ‘कंकरी‘, ‘आखिरी आदमी‘, ‘शहरे अफसोस‘, ‘कछुए‘, ‘खेमे से दूर‘, ‘खाली पिंजरा‘ सभी कहानी संग्रह) ‘अलामतों का जवाल‘ आलोचना)
‘जमीन और फ़लक‘ यात्रा संस्मरण) के अलावा ‘जर्रे‘ शीर्षक से कॉलम भी लिखते आये हैं और कई अनेक अनुवाद भी प्रकाशित हुए।
इंतजार हुसैन कथा साहित्य में अनेक सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं।
आपकी बहुत सी कहानियों में हिन्दुस्तानी पात्र मुखरित होकर सामने आते हैं।
- मेरा अतीत हिन्दुस्तान की सरजमीं से वाबस्ता रहा है। हम आखिरी दौर में हापुड़ (उत्तरप्रदेश) में जाकर बस गये थे। मेरा बचपन उत्तर प्रदेश के डिबई (बुलन्दशहर) में बीता। बहुत सी यादें आज भी जेहन में तरोताजा हैं। मैं वहां दो-एक बार जाकर भी उन यादों को ताजा कर आया हूं। हर बार कुछ नयापन महसूस करता हूं। वह मिट्टी मुझे अपनी ओर खींचती है और भीतर ही भीतर मुझे सींचती है। दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मेरे दिलो-दिमाग में गहराई से जमे हुए हैं। आदमी का अतीत कई यादों के साथ दुश्वारियां भी लिए होता है। मैं उन्हें वहां रहकर भी भुला नहीं पाता। मेरी सियासत में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन उम्दा रिवायतों को आप मेरे अफसानों में देख सकते हैं। इनमें धर्म, जाति, क्षेत्र आदि का कोई बंधन नहीं है। अदब में ये चीजें आना स्वाभाविक है और यह इसकी ताकत और खूबी है।
‘बस्ती‘, ‘मोरनामा‘, ‘दिल्ली था जिसका नाम‘ और बहुत से मेरे अफसानों में मेरे जेहन के हिन्दुस्तान को आप देख सकते हैं। अफसानों में ऐसे स्थानों और चरित्रों का समावेश सायाश नहीं है बल्कि वे खुद-ब-खुद चले आते हैं। अफसाने कोई कोरी कल्पना पर टिके नहीं होते बल्कि उनमें सच्चाई के अक्स होते हैं।
इंसान के भीतर छुपे दर्द और संवेदनाओं को उकेरने का काम अदब एक पुल के तौर पर करता है। अदब नाउम्मीदी को दूर करने के साथ दिलों को जोड़ने का काम करता है और एक भरोसा कायम करता है। हम लिखते हैं तो नक्काद (आलोचक) हमारे जेहन में नहीं होते। यह सोचना हमारा काम भी नहीं है कि आलोचक या पाठक क्या सोचते हैं। हमारी हद अफसाना लिखने तक है।
इंतिजार हुसैन और उनकी कृतियां
जन्म 21 दिसम्बर 1925
डिबाई, जिला बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : मेरठ कालेज से उर्दू में एम.ए.
कृतियां : दिसम्बर 1948 में पहली कृति ‘अदब-ए-लतीफ।‘ ‘बस्ती‘, ‘चांद गहन‘, ‘तजकिरा‘, ‘आगे समन्दर है‘ एवं ‘दिल और दास्तान।‘ सभी उपन्यास)
‘गली कूंचे‘, ‘कंकरी‘, ‘आखिरी आदमी‘, ‘शहरे अफसोस‘, ‘कछुए‘, ‘खेमे से दूर‘, ‘खाली पिंजरा‘ सभी कहानी संग्रह) ‘अलामतों का जवाल‘ आलोचना)
‘जमीन और फ़लक‘ यात्रा संस्मरण) के अलावा ‘जर्रे‘ शीर्षक से कॉलम भी लिखते आये हैं और कई अनेक अनुवाद भी प्रकाशित हुए।
इंतजार हुसैन कथा साहित्य में अनेक सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं।
आपने एक बहुत उम्दा साक्षात्कार के साथ ब्लॉग जगत में धमाकेदार प्रवेश किया है. स्वागत.
जवाब देंहटाएंkhushaamdeed
जवाब देंहटाएंबेहद अच्छी बातचीत है। आगे भी ऐसी ही चीज़ें पेश करते रहें।
जवाब देंहटाएंमेरी मंगलकामनाएँ।