बुधवार, 2 सितंबर 2009

राजस्थानी कहानी की भारतीय कथा साहित्य में सशक्त उपस्थिति है -डा. मालचन्द तिवाड़ी

राजस्थानी कहानी की भारतीय कथा साहित्य में सशक्त उपस्थिति है -डा. मालचन्द तिवाड़ी
राजस्थानी के प्रतिष्ठित कवि, कथाकार एवं उपन्यासकार डा. मालचन्द तिवाड़ी पिछले दिनों
एक साहित्यिक समारोह में जयपुर आये। राजस्थानी भाषा और साहित्य के अवदान, प्रारम्भिक एवं समकालीन राजस्थानी कथा साहित्य पर उनके साथ विस्तार से चर्चा हुई।
राजस्थानी कहानी संग्रह ‘सेलीब्रेशन‘ के लिए राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, उदयपुर ने डा. तिवाड़ी को 2004 में सर्वोच्च ‘सूर्यमल्ल मिश्रण पुरस्कार‘ से सम्मानित किया। वर्ष 1966 में उन्हेंडाॅ. तेस्सीतोरि अवार्ड मिला। इसके साथ ही साहित्य अकादमी, दिल्ली और राजस्थानी अकादमी, बीकानेर ने उन्हें ‘उतरयौ है आभौ‘ काव्य संग्रह के लिए गणेशीलाल व्यास उस्ताद काव्य पुरस्कार से नवाजा। डा. तिवारी का 1982 में ‘भोळावण‘ उपन्यास प्रकाशित हुआ जिसे माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। यहां प्रस्तुत है डा. मालचन्द तिवाड़ी से प्रमुख साहित्यकार फारूक आफरीदी की बातचीत के प्रमुख अंश-
ऽ समकालीन साहित्य में राजस्थानी कहानी की अपनी परम्परा रही है। लिखित कहानी की परम्परा और वाचिक में राजस्थानी वात साहित्य की अपनी परम्परा रही है। उसके साथ आज के लेखक का क्या संबंध बनता है?
मालचंद तिवाड़ी: राजथानी कहानी हो या उपन्यास जिसे हम आधुनिक कथा साहित्य कहते हैं उसमें दो चीजें हैं। ऐसा परिदृश्य है जिससे लगता है कि कहानी ने बहुत तीव्र गति से छलांगें लगाते हुए अपनी यात्रा की है और आज वह मुकम्मल भारतीय कहानी के रूप में है। दूसरी ओर उपन्यास बहुत मंथर गति से चला। ‘कनक सुन्दर‘ बेशक 1903 मंे लिखा गया होगा लेकिन उसके बाद यदि हम देखें और एक ढंग का उपन्यास लें तो ‘आभै पटकी‘ 1957 में आता है। उसके बाद भी उपन्यास संख्या में भी कम हंै और जो हैं उन्हें भारतीय उपन्यास के संदर्भ मंे देखें तो गुणवत्ता का वह स्तर नहीं है। विजयदान देथा के कुछ उपन्यासों को छोड़ दें जो उन्होंने लोकाख्यानों को एक प्रकार से पुनर्सर्जन करते हुए उपन्यास का रूप दिया है, तो कोई बहुत उल्लेखनीय नहीं है। जब हम मूल्यांकन करते हंै तो ऐसा नहीं पाते जो भारतीय साहित्य में कोई बड़ा स्थान रखता हो। इनमें मेरा भी एक उपन्यास शामिल है। मैंने 1982 मंे एक उपन्यास लिखा था ‘भोळावण।‘ बाद मंे वह माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में भी रहा। वह अलग बात है।
कहानी की यात्रा शुरू हुई बीकानेर के मुरलीधर राजस्थानी से। पहले उन्होंने कुछ बांग्ला कहानियों का राजस्थानी में अनुवाद किया और उसके बाद स्वरचित कहानियां लिखना शुरू किया। इनके बाद अन्नाराम सुदामा, नृसिंह रामपुरोहित ने लिखना शुरू किया तो कहानी तीव्र गति से निखरना शुरू हुई। विजयदान देथा की ‘‘अलेखूं हिटलर‘‘ जैसी कहानी 1974-75 में लिखी गई है। वह एक बड़ी कहानी है। मैं इसे न केवल राजस्थानी बल्कि भारतीय कथा साहित्य की एक बड़ी कहानी मानता हंू। उसके संदर्भ बहुत बड़े हैं, उसके अर्थ की गूंजें बहुत बड़ी हैं, अर्थों की व्याप्ति बहुत बड़ी है जो पूरे विश्व परिदृश्य पर एक प्रतिक्रिया के रूप में है। इसी तरह अन्य लेखकों की और कहानियां र्भी आइं। आजकल तो राजस्थानी की हर साल कोई न कोई उल्लेखनीय कहानी आती है। मैं फिर बताऊं कि 1973 में ही भंवरलाल भ्रमर की कहानी है ‘बातां।‘ उसका तो जैसे पुनरार्विष्कार हुआ। जोधपुर में आयोजित एक सेमीनार में उसको पढ़ा गया तो सबने देखा कि राजस्थानी के पास भी ऐसी अद्भुत कहानी है।
ऽ ‘बातां‘ किस रूप में विशेष मानी जाती है? मालचंद तिवाड़ी: ‘बातां‘ की विशेषता यह है कि यह कहानी मध्यम वर्ग के जीवन मंे निराशा, डिप्रेशन और हताशा को बयान करती है। कहानी की खूबसूरती कथ्य के अनुरूप शिल्प के साथ कहने में है। इसमें दो रिश्तेदारों का संवाद है। वे दोनों एक दूसरे से मिलने आये हैं और देख रहे हैं कि जीने के संदर्भ कितने सीमित होते जा रहे हैं। कहानीकार ने इनके मिलने के एक-दो घंटे के समय को इतने सुन्दर तरीके से लिखा है जैसे वे पूरे किसी युग से गुजर गये हों। समय का दस्तावेजीकरण करने की कहानी में एक असीम शक्ति है। इस मामले में राजस्थान की यह कहानी एक उदाहरण की तरह है। अपने वक्त को रचने की सामथ्र्य कहानी में इसी रूप में होती है कि वह अपने कलेवर, अपने सारे रचनात्मक व्यवहार में चाहे वह कथानक के साथ बर्ताव हो, चाहे भाषा के साथ व्यवहार हो, उसका निर्वहन करे। इस दृष्टि से यह एक उत्कर्ष वाली कहानी है।
ऽ आज की राजस्थानी कहानी को आप किस रूप में आंकते हैं?मालचंद तिवाड़ी: आज के बदलते ग्लोबल परिदृश्य में भी हमारे राजस्थानी कथाकार अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी कहानी रच रहे हैं। डा. मंगत बादल की एक कहानी का उल्लेख करना यहां समीचीन होगा जो हाल ही ‘समकालीन भारतीय साहित्य‘ में छपी थी। एक गांव देहात की बेटी है जो पढ़ लिखकर सर्जन बनी है। उसके पास एक मरीज आता है जो लंबे समय से कोमा में चल रहा है। उसके सामने प्रश्न है कि मेडिकल साइंस उसके साथ क्या व्यवहार करे और क्या घरवाले। सर्जन के मन में यह प्रश्न कुलबुलाता है कि ‘मर्सी किलिंग‘ का जो काॅन्सेपट है क्या वह ठीक है या ठीक नहीं है। ऐसी स्थिति में वह सर्जन अपने बचपन के दिनों को याद करती है जिन दिनों उसके ताऊजी एक ऊंटनी को पाला करते थे। गर्भाधान की जटिल प्रक्रिया में उस ऊंटनी की टांग टूट जाती है और उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। तब ताऊजी एक दिन रोते-रोते उस ऊंटनी को गहरी संवेदना के साथ गोली मार देते हैं। ऐसी चीजों को को-रिलेट करना राजस्थानी के एक कहानीकार की बड़ी सामथ्र्य है। एक नये प्रश्न को दूसरे परिवेश में रखकर वह कहानी बड़ा संदेश देती है। प्रश्न वहीं का वहीं रहता है और कोई समाधान नहीं है। जैसा किया गया है वही ठीक है, ऐसा कहानीकार का मत भी नहीं है। पूरे परिदृश्य को बहुत बढ़िया शिल्प में परोसकर रखना और मानवीय अनुभव की तरह उसे कह देना बड़ी बात है। ये 2007 की राजस्थानी कहानी है।
इसी तरह डा. चन्द्रप्रकाश देवल की कहानियां काॅन्सेप्ट के लेवल पर बड़ी कहानियां हैं। उन्होंने बहुत कम कहानियां लिखी हंै। इनकी एक कहानी है ‘बस में रोज़।‘ रोज़ जिसे हम नीलगाय कहते हैं। उस बस में मानसिक प्रक्रिया में वह कहानी निरंतर चलती है।
ऽ राजस्थानी भाषा में हमारे कहानीकार विजयदान देथा, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र, नृसिंह राजपुरोहित, रामेश्वर दयाल श्रीमाली, डा. मंगत बादल, मीठेश निर्मोही आदि काफी समय से कहानियां लिखते आ रहे हैं। इधर मेजर रतन जांगिड़ और कई नये कहानीकार भी उभरकर आये हैं। आप एक आलोचक के नाते उनकी कहानियों को किस रूप में देखते हैं?
मालचंद तिवाड़ी: हमारे यहां कहानीकारों की एक समृद्ध पीढ़ी है। रामेश्वर दयाल श्रीमाली की ‘जशोदा‘ और ‘कांचली‘ जैसी उम्दा कहानियां हैं। मीठेश निर्मोही की ‘हीरा महाराज‘ कहानी एक विशद अनुभव को बयान करती है। मीठेश की शैली बहुत आख्यानात्मक और वर्णनात्मक है लेकिन उनमें संवेदना गहरी है। अनेक कहानीकारों के संग्रहों को उठाकर देखें तो उनमें कथ्य, शिल्प और संवेदना के उत्कृष्ट बिम्ब हैं। इसीलिए मैं कहता हंू कि कहानी की विधा में राजस्थानी ने छलांगें लगाकर प्रगति की है। ताजातरीन परिदृश्य में निरंतर ‘ग्रोथ‘ दिखाई दे रही है।
ऽ क्या इससे उम्मीद बनती है कि राजस्थानी कथा साहित्य राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी एक पहचान बनायेगा?मालचंद तिवाड़ी: राष्ट्रीय स्तर पर राजथानी कथा साहित्य की विशेष पहचान बन चुकी है। साहित्य अकादमी, दिल्ली की कार्यशालाओं के माध्यम से पिछले पांच वर्षों में ही राजस्थानी कथाकारों ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। पंजाबी की पन्द्रह कहानियों का राजस्थानी में अनुवाद हुआ है तो हमारे पन्द्रह कथाकारों की कहानियां पंजाबी में अनुदित हुई हंै। इनके अलावा अनेक संग्रहों में राजस्थानी कहानियां पूरे सम्मान के साथ शामिल हो रही हैं। यही नहीं हिन्दी और अंग्रेजी में भी राजस्थानी की कहानियां छपती हैं। लोग निरंतर इन कहानियों के अनुवाद की लेखकों से अनुमति से मांग रहे हैं।
साहित्य अकादमी की स्वर्ण जयंती पर भोपाल में उत्तर क्षेत्र का ‘न्यू वाॅयसेज‘ प्रोग्राम था। वहां रामेश्वर गोधारा की राजस्थानी कहानी ‘मछली‘ पढ़ी गई तो हिन्दी सहित आठ भाषाओं की आॅडिएंस और बड़े-बड़े साहित्य मर्मज्ञों ने खुल कर उसे सराहा। अनेक लोगों ने उनसे कहानी के अनुवाद की अनुमति मांगी। मैं इसे एक व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं बल्कि एक समृद्ध राजस्थानी कथा परम्परा की उपलब्धि मानता हंू। यह ऐसी कहानी है कि अगर गोदारा स्वयं भी इसका अनुवाद करना चाहें तो दिक्कत आएगी क्योंकि वहां भाषा, कलेवर, संवेदना और पूरे व्यवहार पर खाटी राजस्थानी का प्रभाव है। राजस्थानी कहानी की उपलब्धि भारतीय कथा साहित्य में मुकम्मल तौर पर आज है।
ऽ राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता नहीं मिलने और भाषा को लेकर किंचित विरोध के दुखड़ों से भी रचनाकार आमने-सामने हो रहे हैं तो क्या सृजन पर इसका कोई प्रभाव पड़ रहा है?मालचंद तिवाड़ी: हां, कभी-कभी ऐसा होता है कि शेष भारतीय साहित्य भागीदारी करता है। ‘निकष‘ कई बार विदेशों में भारतीय साहित्य के संदर्भ में आयोजन करता है तो संविधान के शिड्यूल में सम्मिलित भाषाओं के साहित्यकारों को आमंत्रित करता है। यह एक स्थूल उदाहरण है लेकिन इस छोटी सी बात के लिए हम अपने आप को क्यों लूला-लंगड़ा महसूस करें। राजस्थानी भाषा का एक गौरवशाली अतीत तो है ही लेकिन इसका अवदान भी कम नहीं है। आप ये समझिए कि जब हिन्दी साहित्य के इतिहास का आदिकाल और मध्यकाल पढ़ाया जाता है तो मध्यकाल में मीरा जैसी महान कवयित्री को पढ़ना ही पड़ता है। इतने बडे़ अवदान वाली भाषा पर कोई कैसे नाक-भौं सिकोड़ सकता है।
पिछले वर्षों में हालात बदले हैं। राज्य की पिछली अशोक गहलोत सरकार में राजस्थानी भाषा को मान्यता देने के लिए विधानसभा में सर्वसम्मति से एक संकल्प पारित किया गया। अब केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री के बयान आ रहे हैं कि कुछ तकनीकी बाधाएं हैं और शीघ्र ही राजस्थानी भाषा की मान्यता का महा स्वप्न पूरा होगा।ऽ क्या कारण है कि राजस्थानी उपन्यास नहीं आ रहे हैं? मालचंद तिवाड़ी: राजस्थानी लेखक निरन्तर कहानियां लिखकर अपनी श्रेष्ठता राष्ट्रीय फलक पर स्थापित कर रहे हैं। उम्मीद रखी जा रही है कि उनके उपन्यास भी आएंगे। मित्रों से चर्चा के दौरान यह बात आती है कि कई लेखकों की उपन्यास पांडुलिपियां तैयार हैं, कुछ लेखन में निमग्न हैं, कुछ ने तीन सौ से पांच सौ पृष्ठों के उपन्यास ‘पोळा‘ रखे हंै।
ऽ बाजारवाद की समस्या से साहित्य का क्षेत्र भी अप्रभावित नहीं है। ऐसे में राजस्थानी साहित्य की दशा क्या होगी?मालचंद तिवाड़ी: कला अपने सम्मुख उपस्थित चुनौती का प्रत्याख्यान अपने तरीके से ही करती है। जब फोटोग्राफी आई तो चित्रकला को लेकर संशय की स्थिति पैदा हो गई कि उसका क्या होगा, लेकिन कला ने अपना रास्ता स्वयं खोजा। मानवीय अनुभव के ये ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें यंत्र कितनी ही तकनीकी क्षमता के बावजूद रचनात्मक कलाओं को प्रभावित नहीं कर सकते। कला ने अपने रूपाकार खुद ढूंढे हैं। इसी तरह कहानी में भी प्रयोग हो रहे हैं। राजस्थानी साहित्य भी बाजारवाद का मुकाबला करेगा।
ऽ राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की साहित्य संवर्धन में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है?मालचंद तिवाड़ी: इस संदर्भ में अकादमी को अपनी भूमिका को संतोषजनक स्तर पर ले जाने की महती आवश्यकता है। लेखन एक गंभीर धर्म है। इसे समझने की जरूरत है। अकादमी स्वयं ये निर्धारित करे कि वह कैसे इस रचनात्मकता को बढ़ा सकती है। रचनात्मक लेखक अकादमी से जुडं़े, यह अकादमी का परम धर्म बनता है।

(फारूक आफरीदी)
ई-916, गाँधी नगर,
न्याय पथ, जयपुर - 302 015 मो। 94143 35772

सोमवार, 17 अगस्त 2009

अदब इंसानी जज्बातों को समझने में पुल का काम करता हैः इंतिजार हुसैन

लाहौर (पाकिस्तान) के मकबूल अफसानानिगार इंतिजार हुसैन पिछले दिनों अपने राजस्थान दौरे में जयपुर आये हुए थे। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पश्चिमी देशों के अफसानों, अफसाने के फार्म और अपनी पुरानी यादों को लेकर उनसे मेरी गुफ्तगू हुई। पेश हैं उसके संपादित अंश।

एक अच्छा और कामयाब अफसानानिगार बनने के लिए क्या कोशिशें होनी चाहिए? -
मशहूर अफसानानिगारों के अफसाने पढ़ने चाहिए। ये अफसाने चाहे हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी या और किसी जबान के लेखकों के क्यों न हों। हमने जब अफसाने लिखने शुरू किये थे तो उससे पहले मोपांसा और चेखव को पढ़ा, प्रेमचन्द को पढ़ा और उन्हीं से हमें अफसाने लिखने की प्रेरणा मिली। शहादत हसन मन्टो पहले खुद कोई अफसानानिगार नहीं थे। उन्होंने शुरू में जाने-माने अफसानानिगारों के अफसानों के तरजुमे (अनुवाद) ही किये थे और धीरे-धीरे वे खुद मौलिक अफसाने लिखने लगे। अफसाने पढ़ने से ही अफसानों के अच्छे-बुरे की समझ पैदा होगी। आपका लिखा मकबूल होगा या नहीं, इसकी बजाय अफसाना लिखें और खुद ही सोचें कि हम औरों के मुकाबले क्या लिख रहे हैं। कुछ खास लिखेंगे तो अफसाना जरूर मकबूल भी होगा।

पाकिस्तान में हिन्दुस्तानी अफसानों और अफसानानिगारों को लेकर क्या नजरिया है।
- पाकिस्तान में हिन्दुस्तानी अफसानानिगारों की बहुत इज्जत है। जब अफसानों की बात होती है तो मुंशी प्रेमचन्द को कोई कैसे बिना याद किये रह सकता है। उन्होंने सबसे पहले उर्दू में ही अफसाने लिखना शुरू किया था। हिन्दी में अफसाने लिखना उन्होंने बाद में शुरू किया। पाकिस्तान में जब उर्दू अदब के अफसानों की बात चलती है तो मुंशी प्रेमचन्द का नाम आये बिना रह ही नहीं सकता। मुंशी प्रेमचन्द को हमारे यहां कोर्स में शामिल किया हुआ है।

क्या मुंशी प्रेमचन्द के अलावा किसी और हिन्दुस्तानी को भी पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है।
- इतना मैं ठीक से तो नहीं कह सकता लेकिन यह बहुत यकीनी तौर पर कह सकता हूं कि हमारे यहां मुंशी प्रेमचन्द की तरह ही कृष्ण चन्दर, सरदार राजेन्द्र सिंह बेदी और इस्मत चुगताई के अफसानों को बहुत इज्जत के साथ पढ़ा जाता है और ये नाम हमारे यहां कोई नये नहीं हैं।

आपने अब तक कितने उपन्यास और कहानी संग्रह लिखे हैं।
- मेरे चार नावेल और तकरीबन दस-बारह कहानी संग्रह आ चुके हैं। मुझे यह कहते हुए फख्र है कि हिन्दुस्तान में मेरे अफसानों का अंगे्रजी में खूब अनुवाद हुआ। इनमें लीव्ज, सर्किल, क्रॉनिकल आफ पीकॉक्स, बस्ती वगैरह बहुत पापुलर हुए। ‘बस्ती‘ का तो हिन्दी में भी अनुवाद हुआ। हिन्दी के पाठक मुझे इसी वजह से ज्यादा जानने लगे।

एक तरफ हिन्दुस्तान तो दूसरी तरफ आपके अफसानों पर पश्चिमी अफसानानिगारों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसकी क्या वजह हो सकती है।
- जी हां, आप दुरूस्त फरमा रहे हैं। दरअसल जब मुल्क का पार्टीशन हो गया तो एक तरह से अर्से तक लगा कि यहां से हमारा ताल्लुक कट गया है। ऐसी सूरत में पश्चिमी मुल्कों से राब्ता रखना हमारे लिए ज्यादा आसान था। वहां का लिटरेचर और उनके अफसानानिगारों से सम्पर्क आसान होने की वजह से हमारे अफसानानिगारों को वहां का लिटरेचर पढ़ने-देखने में कोई दिक्कत नहीं थी। इसी वजह से वहां की शैली को एडॉप्ट किया गया। इसके बावजूद मैं यह कहना मुनासिब समझता हूं कि हिन्दुस्तान से जेहनी तौर पर हमारे ताल्लुक बहुत गहरे बने रहे। यहां की मिट्टी में पले-बढ़े, यहां के संस्कारों में हमारी परवरिश हुई और यहां से जो बहुत कुछ सीखा उसे कैसे भुला सकते थे। हमारे लेखन में इसका असर देखा जा सकता है।
मैं कैसे भूल सकता हूं कि ‘कथा‘ वालों ने ‘स्टोरीज ऑफ इंतिजार हुसैन‘ के नाम से मेरा एक कहानी संग्रह छापा था। हिन्दुस्तान में मेरे अफसानों को लोग बहुत इज्जत से पढ़ते हैं। मैं उनका शुक्रगुजार हूं।

पाकिस्तान में उर्दू और अंगे्रजी दो ही भाषाओं को तरजीह दी जाती है। आपके अफसाने वहां उर्दू के साथ अंग्रेजी में भी छपे होंगे। उनका क्या रेस्पांस रहा।
- हां, अंग्रेजी में भी वहां अनुवाद हुए हैं लेकिन हिन्दुस्तान में जो अनुवाद छपा उसका रेस्पांस पाकिस्तान से भी ज्यादा अच्छा रहा।

आपके एक संग्रह में ‘पंचतंत्र की कहानियों‘ से प्रभावित एक कहानी ‘कलीला-दमना हिट लिस्ट पर‘ है। आप इससे कैसे प्रभावित हुए।
- देखिए, पंचतंत्र या पौराणिक कथाएं आज की नहीं हैं। इसकी रिवायत बहुत पुरानी है। मुल्क का बंटवारा होने से पहले से पंचतंत्र की कहानियों का फारसी, अरबी और उर्दू में अनुवाद मिलता है। उर्दू में तो इस क्लासिक के दो-तीन वर्जन मौजूद हैं। मैंने जब इसे पढ़ा तो लगा कि ये नीति कथाएं हर दौर में इंसान को एक ताकत बख्शती हैं। मेरी कहानी आज के दौर को लेकर लिखी गई है और इसके बावजूद इसमें मैंने जानवरों के जरिए नीति और सिद्धान्तों को मौजू बनाने की भरपूर कोशिश की है। जहां भी इन्हें सुनाता हंू या जो लोग पढ़ते हैं, उसकी बड़ी तारीफ होती है।

भारत में कथा साहित्य के विकास के लिए समय-समय पर आंदोलन चले। मशहूर कथाकार कमलेश्वर ने बाकायदा एक अभियान चलाया। कथा साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए क्या ऐसे अभियान पाकिस्तान में भी चलाये गये।
- नहीं, हमारे मुल्क में कथा-कहानी एक ढर्रे पर ही चली लेकिन उसमें वक्त के साथ बदलाव भी आया। हमारे कहानीकार अपने-अपने हिसाब और अपनी सोच, शैली और कथ्य को लेकर कहानियां लिखते आ रहे हैं। सबका अपना अलग-अलग नजरिया रहता है।

क्या वहां कहानियों और उपन्यासों को लेकर कोई अकादमिक बहस भी होती हैं।
- नहीं, हिन्दुस्तान में आकर मैं देखता हूं कि यहां पोइट्री या फिक्शहन को लेकर लोग बहुत संजीदगी से बहसें करते हैं। हमारे यहां ऐसा नहीं है।

साहित्य के विकास को लेकर आपके मुल्क में सियासत और अकादमियों का क्या नजरिया रहता है।
- हमारे यहां सिर्फ एक अकादमी है - सेन्ट्रल एकेडमी आफ लिटरेचर। आपके यहां जिस तरह हर सूबे में उर्दू, हिन्दी, ब्रज, पंजाबी, सिंधी, संस्कृत वगैरह या दीगर जबानों की अकादमियां काम कर रही हैं वैसा हमारे यहां कुछ नहीं है। हां, उर्दू, पंजाबी, पश्तो जैसी जबानों और उसके लिटरेचर को फरोग देने के लिए बोर्ड जरूर बने हुए हैं। लिटरेचर, आर्ट, कल्चर के डेवलपमेंट को लेकर सियासत की कोई दिलचस्पी नहीं है। सियासत किसी भी दौरे की हो, उनका अदब के लिए कोई अहम नजरिया नहीं रहता। यहां केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने जैसे पूरे मुल्क में लिटरेचर एक्सचेंज का जो दौर शुरू किया है वह एक अच्छा कदम है। हमारे यहां इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता।

आप अफसानों में ट्रेडिशनल फार्म के खिलाफ हैं लेकिन उनमें दास्तानगोई मिलती है। ऐसा क्यों।
- मुझे लगता है कि मैं दस्तानगोई के जरिए अपने दिल की बात आसानी से पहुंचा पाता हूं। हमारी एक साझी परम्परा रही है। हिन्दुस्तान में ऐसे बहुत से धारावाहिक भी बने और मकबूल हुए। वैसे मैं कहानी के ट्रेडिशनल फार्म को पसन्द नहीं करता। मैं जब अफसाना लिखने बैठता हूं तो वर्तमान मेरे सामने होता है लेकिन जब मुकम्मल करता हूं तो उसमें अतीत की यादें भी चली आती हैं। मैं समझता हूं इससे कहानी में पुख्तगी आती है। वह ताकतवर बनती है और लोगों को उसमें रस आने लगता है।

आपकी बहुत सी कहानियों में हिन्दुस्तानी पात्र मुखरित होकर सामने आते हैं।
- मेरा अतीत हिन्दुस्तान की सरजमीं से वाबस्ता रहा है। हम आखिरी दौर में हापुड़ (उत्तरप्रदेश) में जाकर बस गये थे। मेरा बचपन उत्तर प्रदेश के डिबई (बुलन्दशहर) में बीता। बहुत सी यादें आज भी जेहन में तरोताजा हैं। मैं वहां दो-एक बार जाकर भी उन यादों को ताजा कर आया हूं। हर बार कुछ नयापन महसूस करता हूं। वह मिट्टी मुझे अपनी ओर खींचती है और भीतर ही भीतर मुझे सींचती है। दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मेरे दिलो-दिमाग में गहराई से जमे हुए हैं। आदमी का अतीत कई यादों के साथ दुश्वारियां भी लिए होता है। मैं उन्हें वहां रहकर भी भुला नहीं पाता। मेरी सियासत में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन उम्दा रिवायतों को आप मेरे अफसानों में देख सकते हैं। इनमें धर्म, जाति, क्षेत्र आदि का कोई बंधन नहीं है। अदब में ये चीजें आना स्वाभाविक है और यह इसकी ताकत और खूबी है।

‘बस्ती‘, ‘मोरनामा‘, ‘दिल्ली था जिसका नाम‘ और बहुत से मेरे अफसानों में मेरे जेहन के हिन्दुस्तान को आप देख सकते हैं। अफसानों में ऐसे स्थानों और चरित्रों का समावेश सायाश नहीं है बल्कि वे खुद-ब-खुद चले आते हैं। अफसाने कोई कोरी कल्पना पर टिके नहीं होते बल्कि उनमें सच्चाई के अक्स होते हैं।

इंसान के भीतर छुपे दर्द और संवेदनाओं को उकेरने का काम अदब एक पुल के तौर पर करता है। अदब नाउम्मीदी को दूर करने के साथ दिलों को जोड़ने का काम करता है और एक भरोसा कायम करता है। हम लिखते हैं तो नक्काद (आलोचक) हमारे जेहन में नहीं होते। यह सोचना हमारा काम भी नहीं है कि आलोचक या पाठक क्या सोचते हैं। हमारी हद अफसाना लिखने तक है।


इंतिजार हुसैन और उनकी कृतियां

जन्म 21 दिसम्बर 1925
डिबाई, जिला बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : मेरठ कालेज से उर्दू में एम.ए.
कृतियां : दिसम्बर 1948 में पहली कृति ‘अदब-ए-लतीफ।‘ ‘बस्ती‘, ‘चांद गहन‘, ‘तजकिरा‘, ‘आगे समन्दर है‘ एवं ‘दिल और दास्तान।‘ सभी उपन्यास)
‘गली कूंचे‘, ‘कंकरी‘, ‘आखिरी आदमी‘, ‘शहरे अफसोस‘, ‘कछुए‘, ‘खेमे से दूर‘, ‘खाली पिंजरा‘ सभी कहानी संग्रह) ‘अलामतों का जवाल‘ आलोचना)
‘जमीन और फ़लक‘ यात्रा संस्‍मरण) के अलावा ‘जर्रे‘ शीर्षक से कॉलम भी लिखते आये हैं और कई अनेक अनुवाद भी प्रकाशित हुए।
इंतजार हुसैन कथा साहित्य में अनेक सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं।